सोमवार, 6 अप्रैल 2020

माँ


माँ 
मां का दरकना
हमारे उम्र के ढलने के साथ हुआ
दुनिया के नजरों में
हम समझदार हो रहे थें
और वह धीरे-धीरे नासमझ
बैठक की तस्वीरों में भी मां
अकेली ही रहती
तस्वीरों में भी पिता चाचा दादा के साथ हँस रहे थे
चाची ,ताई ,दादी अभी भी
अदृश्य परदों के पीछे से झाँक रही थी
मां के भारी जेवरों से
बनते रहे
बहुओं के हल्के जेवर
और जब मां के जेवर हल्के हो गए
मां उन सबके लिए हो गई भारी
3)
चूजों के सामने चिड़िया सी चहकती मां
मेरी मजबूती से ज्यादा
सांस टूटने तक मुझे थामने वाली
वो मां ही है
जो अदेखे को भी कौर देना नहीं भूलती
जैसे-जैसे हम बड़े होते है
माँ की नींद घटती है
और दिन ऐसा भी आता है
जब सोने से पहले ही
हम मान लेते हैं
कि मां सो गई
और यूँ एक दिन बिन-बताए
ऐसे ही सो गई मां
निःशब्द तो कई बार जली होगी
पर उस दिन तो मां की हड्डियां भी
निःशब्द कराह उठी थीं
जिस गुनगुनी धूप में
उसने उपले उगाए थे
उसी गुनगुनी धूप में
कड़े,पीपल,तुलसी,अमिया,
घी,कपूर,चंदन
जो उन्हें सबसे प्यारे थें
सबके साथ जली मां
4)
पिता का गाया महाभारत
और मां की गाई गीता
पेटेंट नहीं कर पाया मैं
न उनके थप्पड़ ना ही लोरी को रिकॉर्ड कर पाया
पर जिस दिन भी थक कर
सच में चूर हो जाता हूँ
पिता पढ़ने लगते हैं मंत्र
और अदृश्य मां गुनगुनाने लगती है लोरी
5)
सब एक जैसे थे तब तक
जब तक स्कूल नहीं गए थे साथ
वहाँ जिस सीढ़ी से हर बार वे चढ़ते गए
उसी सीढ़ी से हरबार हमें उतारा गया
उंगलियाँ मुझ जैसी है उनकी भी
लेने के लिए फैलती हैं
और खाने के लिए सिकुड़ती हैं
इन दोनों के बीच वजूद का कश्मकश है
याद वही आते हैं
जो रुक जाते हैं
रास्ता चलते-चलते
हमारे दुःख के साथ
शक्ल नहीं संवेदनाओं की तस्वीर याद है
आंखों में कोपलों की तरह उग आते हैं
जब तब, जिन्होंने नीम मला था जख्मों पर
और जो सहला गए थे दुखती नब्ज़
6)
अपना गायब होता चेहरा ढूंढ़ता हूँ
जो टुकड़ों में मिलता है मुझसे
गाँव से आती सभी सूरतों में
कितने शहरों में भटका
अपने शहर को छोड़कर
सभी का तापमान बदल रहा था
बस अपने शरीर को छोड़कर
शहर के फर्श पर चल तो रहा हूँ
जबकि मेरा अर्श
वहीं ठहर गया है मेरे गाँव में
पीपल की लरज़ती डाली पर
ताकता है अपना चेहरा
गुमसुम हिलती-डोलती तलैया में
जबकि तलैया भी अपनी अंतिम सांस ले रहा है
टूटी दीवारें उसाँसे लेती हैं
घास बिछना नहीं चाहता
पोखर कुएँ में समा रहा हैं
अब गाँव का शहर बनना तय है
7)
गहगहाते बौरों से
आम का पता लगाना मुश्किल है
पिरयाती नीम की पत्ती से
उसका मर्म नहीं समझा जाता
अर्धालियों से गीत का
पूरा मजमून समझ नहीं आता
और
सच में नहीं समझ सकते पिता
मां के मन का हाल
जाना है जब एसे ही
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