सोमवार, 27 अप्रैल 2020

प्रेम की अनन्त कथा


प्रेम की अनन्त कथा
                         
यह कोई 1963-64 की बात होगी
मैं छठी - सातवीं में पढ़ रहा था
चीन के युध्द की झांई चेहरों में छाई हुयी थी
मन को लगता था कि
इस सबसे अपने को उबारनें के लिए
पढ़ना ही एक सही रास्ता है
सो रात में देर से सोनें और
सुबह पढ़ते हुये उठनें की आदत बन चुकी थी
चूंकि दिन में बचे हुये समय में
बंटानें पड़ते थे पिता के हाथ
मां को देना होता था
सहारे का बोध ,

रात में अक्सर जब पुस्तकों के
अधूरे पाठ को बीच में रोक कर
सुबह जल्दी जगनें के वायदे के साथ
सोंनें की कर रहे होते थे तैयारी
अचानक आनें लगती थी पिछवाडे़ से
पीर भरी आवाजें
जो गाते गाते रोतीं थी
और रोते रोते गाती थी
इस रोनें और गानें के बीच
और कोई नहीं
हमेशा एक औरत होती थी
जिसे एक रोते रोते गाता था
दूसरा हुकारी भरते हुये रोता था ,

मुश्किल से लगी बडे़ दादा की नींद
इस रोनें और गानें के बीच
अक्सर खुल जाती थी
वे लेटे लेटे चिल्ला उठते थे
अरे भिखुवा सोनें दे रे
दिन में ससुरे मेहरियों की डन्डा बाजी करतें हैं
रात में उन्हीं मेहरियों के लिए धार धार रोते हैं
भिखुवा कहता बस महराज
मिलन करवा  दूं नही तो यह
रात भर तड़पेंगे
हमका भी नींद नहीं आयेगी ,

यह प्रेम की अनन्त कथा
जहां से टूटती थी
दूसरे दिन रात में
फिर वहीं से बिना भूले हुये
बढ़ जाती थी आगे 
                                                                   नरेंद्र पुण्डरीक

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

प्रेम की अनन्त कथा

प्रेम की अनन्त कथा                           यह कोई  1963-64  की बात होगी मैं छठी - सातवीं में पढ़ रहा था चीन के युध्द की झांई चेह...