पुल बनी थी माँ
नरेंद्र
पुण्डरीक
हम भाईयों मे बीच
पुल बनी थी माँ
जिसमें आये दिन
दौड़ती रहती थी बेधड़क
बिना किसी हरी लाल
बत्ती के
हम लोगों की छुक
छुक छक छक
पिता के बाद
हम भाईयों के बीच
पुल बनी थी माँ
अचानक नहीं टूटी
धीरे धीरे टूटती
रही
हम देखते रहे और
मानते रहे कि
बुढ़ा रही है माँ
माँ के बाद बार कहने
को
हम मान कर चलते रहे
उसके बूढ़े होने की
आदत और
अपनी हर आवाज में
धीरे टूटती रही माँ
हाथों हाथ रहती माँ
एक दिन हमारे कंधों
पर या गई
धीरे-धीरे महसूस
होने लगे हम
अपने वृषभ कंधों
में माँ का भारी होना
जब तक जीवित रही
माँ
हम बदलते रहे अपने
कंधे
माँ आखिर माँ ही
तो है
बार बार हमें कंधे
बदलते देख
हमारे कंधों से उतर
गई माँ
और माँ के कंधों
से उतरते हुए ही
उतर गए हमारे कंधे
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