हर कहीं होता है
थोड़ा थोड़ा
डी.ए.वी. कालेज की कक्षाओं में जहां
एक दिन पहले लगी
मेज कुर्सियों में पढ़ रहे थे पढ़ेरी
वहां बिछी हैं चारपाइयां
एक में बैठे हैं तकिया का कुछ सहारा लेकर
कुछ टिके से विश्वनाथ त्रिपाठी
सुन कर बार बार
कृष्ण मुरारी की कविता
‘‘पूज्य
पिता पानी ले आये
मां ने सौपी अपनी माटी ’’
गद् गद् हो रहे है ,
उनके ही बगल में
कुछ अन्तर से चारपाई में
उकडू से बैठे
शिवकुमार मिश्र और मुरली मनोहर प्रसाद सिंह
सुन रहे हैं ध्यान से
त्रिलोचन शास्त्री की भाषाई झप्प ,
कुबेरदत्त डाईरेक्टर दूर दर्शन ठहरे हैं
यहां से पांच कि0 मीटर दूर
भूरागढ़ के गेस्ट हाउस में
सरकारी गाड़ी से कर रहे हैं आवा जाही ,
रामविलास शर्मा तो आगये थे
आज से आठ दिन पहले
केदारनाथ अग्रवाल के यहां
खा रहे हैं सरसों का साग
और हथपोई रोटियां ,
इस शहर के लोगों को नहीं मालूम था कि
केदार नाथ अग्रवाल इतने बडे कवि हैं
लोग दौडे़ चले आ रहे
देश के हर कोनें कतरे से
शहर के लोगों को बस मालूम थाकि
केदार बाबू एक वकील हैं
जो बस अडडे् के पीछे रहते हैं और
मुवक्किलों के पीछे नहीं भागते ,
बस इतना काफी था उनका जानना
वह यह खूब जानते थे कि
वकालत का ईमानदारी से
कोई मतलब नहीं होता क्योंकि
ईमानदार का अलग से अपना कोई
घर नहीं होता दुनियां में
दुनियां ही होती है उसका घर
हर कहीं होता है वह थेड़ा थेड़ा
यही थेड़ी सी कमाई थी
जो दिख रही थी आज
इस छोटे से शहर में ,
रात को हुये कविता पाठ में
अदम गोड़वीं और रमेश रंजक को सुन
बहुत खुश हुये थे शहर के लोग
पहली बार उन्हें लगा था कि
कविता हमारे लिये कुछ कर रही हे ,
अदम गोंड़वी तो अभी तक
अलटते पलटते रहे
रमेश रंजक तो यहा से जाते ही
खाली कर दिये थे मैंदान
जो अब तक वैसे ही खाली पड़ा है
कविता के बिना .
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